‘शिक्षक से मिलिए’ अर्ली बर्ड द्वारा एक मासिक श्रृंखला है, जिसमें हम भारत भर के उन शिक्षकों के काम को पेश करते हैं जो पक्षियों और प्रकृति के आनंद को सक्रिय रूप से फैला रहे हैं। इस महीने के विशेष शिक्षक उत्तराखंड के प्रकृति शिक्षक तौकीर आलम लोढ़ा हैं जो पिछले 10 वर्षों से प्रकृति संरक्षण की दिशा में काम कर रहे हैं।
An English translation of this interview can be found here.
हमें अपने बारे में कुछ बताइये। आप कहाँ से हैं और क्या काम करते हैं।
मैं उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क से हूँ और वन गुज्जर नोमैडिक ट्राइब कम्युनिटी से हूँ। वहाँ पर मैं पिछले 10 सालों से पर्यावरण शिक्षा पर काम कर रहा हूँ। जो वन गुज्जर अभी भी जंगलों में है उनके लिए वहाँ पर कोई स्कूल नहीं है। वहाँ के बच्चों के साथ हम काम करते हैं। हमारे ग्रुप का नाम “मई” है। हम एक्टिविटी-बेस्ड लर्निंग के माध्यम से भाषा, गणित, कला और नेचर एजुकेशन सिखाते हैं।
क्या आप बर्डवाचर हैं? आपको पक्षियों को देखना क्यों पसंद है?
मैं बचपन से पक्षियों को देखता आया हूँ, प्रकृति में जिया हूँ। पक्षियों का प्रवास मुझे बहुत अनोखा लगता है। कैसे एक छोटा सा पक्षी प्रवास करता है, कुछ पक्षी ऐसे हैं जो अपने वज़न से भी ज़्यादा खा लेते हैं। यह सब सुनने में बड़ा अलग सा लगता है पर यह एक सच्चा तथ्य है जो बहुत उत्तेजित करता है। और उनके रंग और व्यवहार भी मुझे अच्छे लगते हैं।
पर्यावरण शिक्षा में आपकी दिलचस्पी कब और कैसे बनी?
मैं हमेशा से जंगलों में रहा हूँ … मैं पर्यावरण को जानता था और समझता था। वास्तव में वैज्ञानिकों से मिलने का मौका मिला तब पक्षियों के बारे में और जानने को मिला। उनका प्रवास, प्रजनन काल में व्यवहार, वह कैसे खाते हैं, कैसे वह फ़ूड चैन का हिस्सा हैं, यह सब मुझे बहुत अच्छा लगा। एक पक्षी की पर्यावरण में क्या भूमिका है, और सिर्फ पक्षी ही नहीं बल्कि छोटे से कीड़े जैसे फिग-वास्प की कितनी अहमियत है, यह सब जान कर मैं बहुत उत्तेजित हुआ।
पर्यावरण बचाव एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और वास्तव में उसकी ज़रुरत भी है। मैं पिछले 8-10 सालों से पर्यावरण शिक्षा और पर्यावरण के मुद्दों से जुड़ा हुआ हूँ। मैं देखता हूँ की जब आप किसी बड़े इंसान से पर्यावरण के बारे में बात करें तो उनको ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। उल्टा वह ज्ञान देना शुरू कर देते हैं। लेकिन अगर आप बच्चों से इन गंभीर मुद्दों पर, पक्षियों या पर्यावरण संरक्षण के बारे में बात करोगे तो उनको उस दिशा में ले जाना आसान होता है। तो इसलिए बच्चों के साथ काम करने में मेरी रूचि है। हम अगर किसी को उस ओर ले जा सकते हैं तो वह नयी पीढ़ी है। जिनका दिमाग पहले से सेट हो चुका है, आप उनको नहीं मोड़ सकते।
आप अपने काम से क्या हासिल करना चाहते हैं?
मुझे लगता है कि अभी पीढ़ियों में पर्यावरण की समझ ख़त्म हुई है, पर्यावरण के साथ जो उनका रिश्ता था, वह ख़त्म हुआ है। अब लोग एक अलग ही ज़िन्दगी की ओर जा रहे हैं। उसको कैसे समझा जाए और उस समझ को वापस कैसे लाया जाए। अगर मैं उत्तराखंड की बात करूँ, तो यहां इतने पेड़ कट रहे हैं, सड़कें चौड़ी हो रही हैं। लेकिन पुरानी पीढ़ियों को आप देखें तो चिपको आंदोलन उत्तराखंड से ही शुरू हुआ था। उनका रिश्ता था पर्यावरण के साथ। तो वापस से लोग पर्यावरण के प्रति भावना जगाएं और सोचें की हम विनाश की ओर जा रहे हैं। प्रकृति ने जो एक संतुलन बनाया हुआ है, हम उसमें बाधा डालने से पहले सोच पाएं ज़िम्मेदारी के साथ। बहुत बड़ा काम है लेकिन हम इसमें अपनी भूमिका निभाएंगें।
बच्चों के लिए पक्षियों और प्रकृति से जुड़ना क्यों ज़रूरी है?
जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि जो व्यक्ति मानता है की वह ज्ञानवान है और बड़ा हो चुका है, ज़्यादा ज़िन्दगी बिता चुका है, जो अपने कामों में फंस चुका है, उस को मोड़ना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन अगर आप बच्चों को शुरू से उस माहौल में लेकर जाएँ, जो भी वातावरण रहता है, बच्चा उस ही ओर जाता है। आप भाषा को ही देख लें। अगर बच्चे के आस पास अंग्रेजी बोली जा रही है तो वह अंग्रेजी सीख लेंगे, अगर पंजाबी बोली जा रही है तो वह पंजाबी सीख लेंगें। इसलिए पर्यावरण शिक्षा बच्चों के साथ करना आसान है। अगर उनके आसपास वह माहौल बनाया जाए तो बात उन तक पहुंचेगी।
आप पर्यावरण शिक्षा में किन संसाधनों का उपयोग करते हैं? क्या कोई ऐसा तरीका है जो आपके लिए काम आया हो?
जब मैंने पहली बार दूरबीन से पक्षी को देखा तो एक अलग ही दुनिया दिखी। दूरबीन काफ़ी काम आई। बच्चे दूरबीन से बहुत उत्तेजित होते हैं। संसाधनों के साथ यह चुनौती आती है कि वह स्थानी भाषा में कम होते हैं। हम स्थानी भाषा के संसाधनों से ही आगे बढ़ पाते हैं। प्रकृति से जुड़े हुए खेल, परंपरागत खेल, और लोक कहानियां बहुत मायने रखती हैं। गुज्जरों में एक कहानी है कि कठफोड़ा कैसे बना। उसके जैसी कहानियां बच्चों के सामने रखी जाएँ तो वह बहुत काम आती हैं क्योंकि वह उन्ही के समाज से ली गई हैं।
अगर हम बच्चों के साथ पर्यावरण शिक्षा कर रहे हैं तो वह एक गंभीर शिक्षा नहीं होनी चाहिए जो हम कक्षा में कर रहे हों। उनको जंगल में ले कर जाएं, वॉक्स पर ले कर जाएँ, जहां वह बंधे हुए ना हों, ऐसे तरीके जो उनको व्यस्त रखें और उत्तेजित रखें, ऐसे तरीके काफी मदद करते हैं बच्चों को सिखाने में।
आप को पर्यावरण शिक्षक के रूप में क्या कठिनाइयां आई हैं और उनका आपने कैसे सामना किया?
शुरुआत में वही कठिनाइयां थी की बच्चों के हिसाब से संसाधन नहीं थे। तो हमने उनको उन्ही की स्थानीय कहानियां सुनाई। बाद में काफी मैटीरियल आए, अर्ली बर्ड ने भी काफी अच्छे मैटीरियल बनाए हैं। हिंदी में कहानियों की किताबें हैं। पहले हमारे पास दूरबीन नहीं थी। जब लोगों ने दूरबीन डोनेट की तब चैलेंज कम हुआ।
बच्चों के साथ पर्यावरण शिक्षा का कोई यादगार अनुभव बताईए।
मैं जब बच्चों को ले कर जाता हूँ तब ज्ञान नहीं बांटता हू। शुरुआत में बच्चों के साथ “व्हाई वॉक” करता हूँ। एक बार मैं बच्चों को बरगद के पेड़ पर ले गया और वहाँ धनेश बरगद के दानों को उछाल के खा रहे थे। मैने पूछा वह ऐसे क्यों खा रहे हैं। बाकी पक्षी तो चबा कर खा रहे हैं। तब बच्चों की प्रवीणता निकल कर आई कि धनेश की जीब छोटी होती है इसलिए वह दाने उछाल कर खाते हैं। बच्चों के इस जवाब ने मुझे दंग कर दिया। हम सोच कर आते हैं कि इनके पास ज्ञान नहीं होता पर इनके पास पहले से ही काफी ज्ञान होता है।
क्या आप कोई ऐसी घटना याद कर सकते हैं जिसने आप के स्वरुप को अकार दिया?
एक बच्चा है इमरान, जो हमारे सेंटर से है। उसके साथ सरल सी वॉक करते थे। मुझे उसके साथ ज़्यादा समय नहीं मिला। मैं जब 6 महीने बाद उससे मिला तो उसे पक्षियों के बारें में काफी कुछ पता था। वह पक्षियों का प्रवास और व्यवहार, उनकी आपस में लड़ाई कैसे होती है, उनकी आवाज़ें बता रहा था। उसे पक्षियों के भौगोलिक क्षेत्र और प्रवास के बारे में भी पता था । उसको अंग्रेजी नहीं आती लेकिन उसने किताब से अपने आप सीख लिया की लाल रंग मतलब गर्मी और नीला मतलब सर्दी। तब लगा की बच्चों को बस एक माहौल देने की ज़रुरत है । एक शुरुआत करने की ज़रुरत है । छोटी-छोटी चीज़ें उनके आस पास बनाने की ज़रुरत है। ऐसा नहीं है की आप पूरा पर्यावरण शिक्षा पर एक कोर्स बनाओ, एक टीचर हमेशा हो। पहले मैं यही सोचता था। लेकिन एक नियमित तौर पर पर्यावरण बना कर रखते हो तो उसका फायदा मुझे समझ आया। और उसने मेरी सोच बदल दी। ऐसा नहीं है की आप जो परोसोगे वह वही खाएंगें। उनके पास भी दिमाग है । वह अलग-अलग तरीकों से काम करते हैं।
क्या आपको पर्यावरण शिक्षा के बाद बच्चों में कोई फ़र्क नज़र आया?
बच्चों में जागरूकता बढ़ जाती है। वह चीज़ों को अलग नज़रिये से देखते हैं । झिलमिल कंसरवेटिव रिज़र्व में अच्छे पैमाने पर शिकार होता था । बच्चे मज़े-मज़े में शिकार करते थे। पतरंगों के घोंसले बंद कर देते थे। पर अब जब हमने इनके साथ काम किया तो फिर बाद में यह पता चला की जिन बच्चों के साथ हम काम कर रहे हैं उन्होंने दूसरे बच्चों तक जानकारी पहुंचाई और वास्तव में उन्हें शिकार करने से रोका। तो हमें यह देखने को मिला की बच्चे भी संरक्षण की ओर सोचने लगते हैं।
आप अपने साथी शिक्षकों को क्या सन्देश देना चाहेंगे? या उनको जो पर्यावरण शिक्षा शुरू कर रहे हैं?
जो शुरू कर रहे हैं उनको तो मैं बस यही कहूंगा की आप बस प्रकृति को ध्यान से देखें । अगर आप रूचि बना रहे हैं तो आप पर्यावरण में समय बिताएं । ऐसे आप खुद ही सीखने लग जाएंगे। किसी पर निर्भर न रहें। मेरा अनुभव तो यही है की जब ग़ौर से चीज़ों को देखने लगते हैं तो अपने आप से सीखने लग जाते हैं। शिक्षकों को बस यही कहूंगा कि ज्ञान मत झाड़िए। बस बच्चों के साथ जाइए और खुद बच्चे हो जाइए । उनके साथ सीखिए। नहीं तो पर्यावरण शिक्षा एक लेक्चर बन जाता है।
congratulations तौकिर आलम